१ फरवरी, १९७२

 

 २१ फरवरीका संदेश :

 

 ''पूर्ण सचाई प्राप्त करनेके लिये चैत्य केंद्रके चारों ओर समस्त सत्ताका पूर्ण एकीकरण एक आवश्यक शर्त है ।''

 

-श्रीमां


  मैंने देखा है कि लोग कपटी केवल इसलिये होते हैं क्योंकि सत्ताका एक भाग एक बात कहता है और दूसरा भाग दूसरी बात । यही चीज है जिससे कपट बनता है ।

 

  लेकिन चेतनाकी ऐसी स्थिति प्राप्त करना बहुत कठिन है जो स्थायी हो : हमेशा सारे समय उसी चेतनाका शासन रख सकना कठिन है ।

 

लेकिन, वत्स, यह तभीतक ठीक है जबतक तुम एक न हों जाओ । मेरे लिये तो ह... मे... शा यही बात रही है (माताजी एक सीधी लकीरकी मुद्रा करती हैं), बरसोंसे, बरसोंसे यही । यह वहांसे आती है, यह चैत्य चेतना है और यह 'निरंतर' है ।

 

  अभी हालमें, कुछ क्षणोंके लिये मुझे अनेकीकृत चेतनाका अनुभव हुआ, लेकिन बरसोंसे - बरसोंसे, कम-से-कम ३० वर्षसे ऐसा नहीं हुआ ।' चैत्य पुरुष प्रत्यक्ष स्वामी बन गया और उसने सारी सत्तापर शासन करना शुरु कर दिया और बात खतम -- खतम, और तबसे ऐसा ही है (वही सीधी लकीरकी मुद्रा) । यह वास्तवमें एक निश्चित चिह्न है, हमेशा वैसा ही, हमेशा एक ही । और यह हमेशा एक ही चीज रहती है : जो 'तेरी' इच्छा, जो 'तेरी' इच्छा और यह ''तू'' कोई ऐसी चीज नहीं है जो कही किसी सुदूर क्षेत्रमें बैठा है, जिसे हम नहीं जानते. 'वह' हर जगह है, 'वह' हर चीजमें है, 'वह' सदा-सर्वदा उपस्थित है, 'वह' सत्ताके अंदर है -- ओर तुम इस तरह 'उसके' साथ चिपके रहते हो । यही एकमात्र समाधान है ।

 

   यह मेरी हालकी खोज है । यह इस बातकी खोज है कि लोग कपटी क्यों हैं (तब भी जब वे सच्चे, निष्कपट होना चाहते है) - क्योंकि कमी एक भाग, कभी दूसरा भाग और कभी तीसरा भाग ऐसा होता है; उस समय वह भाग अपनी मांगोंमें बिलकुल सच्चा होता है, लेकिन वह दूसरोंके साथ सामंजस्यमें नहीं होता ।

 

 जी हां, इसका मतलब यह हुआ कि चैत्य चेतना भौतक चेतनामें प्रवेश करती है ।

 

हां

 

 वास्तवमें, पैंसठ वर्षसे ।

 

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  क्योंकि केवल वहीं चीजें स्थायी हैं ।

 

हां...

 

  चैत्य चेतनाको सामान्य भौतिक चेतनामें प्रवेश करना चाहिये ।

 

हां!

 

 वही चीज मुश्किल है ।

 

लेकिन, वत्स, जैसा कि मैंने कहा, मेरे साथ यह बात कम-से-कम तीस वर्ष पहले हुई थी ।

 

  चैत्य चेतना सत्तापर हमेशा शासन करती थी और पथ-प्रदर्शन करती थी । और सभी संस्कार, सब कुछ उसके आगे इस तरह रखे जाते थे ( ''सच लाइट''के सामने रखनेकी मुद्रा), ताकि वह ठीक निर्देश दे सकें । और भौतिक भी हमेशा ऐसा ही रहता है, वह मानों सारे समय भगवान्के आदेश सुनता रहता था । लेकिन यह चीज निरंतर बनी रहती थी, निरंतर - मेरे यहां आनेसे भी पहले -- मै यहां इसी अवस्थामें आयी थी - यह बहुत पहलेकी बात है । और यह चीज झिलमिलायीतक नहीं । अभी हालमें मुझे (अनेकीकृत चेतनाकी) अनुभूति हुई । एक रात कुछ घंटोंके लिये, दो-तीन घंटोंके लिये -- हां, वह भयंकर चीज थी, वह नारकीय प्रतीत होती थी । यह मुझे औरोंकी स्थिति बतानेके लिये, समझाने- के लिये थी कि जब चैत्य पुरुष नहीं होता... ।

 

   शरीर -- शरीर ऐसा है । हमेशा सुनता रहता है, हमेशा सुनता रहता है (ऊपरकी ओर या भीतरकी ओर संकेत) -- सुनता रहता है । लेकिन बात शब्दोंमें नहीं व्यक्त की जाती (भगवान्का आदेश), अपने- आपको दृढ़ निश्चयके साथ लागू करते हुए, संकल्पकी तरह प्रकट करता है ( अविचल अवतरणकी मुद्रा) ।

 

 क्या इसे ज्यादा यथार्थ बनानेके लिये कुछ और कहनेकी जरूरत है?

 

     आपने कहा है : ''समस्त सत्ताका पूर्ण एकीकरण ।',

 

 इसका मतलब है भौतिक सत्ताका भी ।

 

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